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दोहे

युग बीता, मौसम गए, बदला सब परिवेश।
किंतु तिमिर से रोज़ ही, लड़ता रहा दिनेश।

उसकी यादों में रहा, मैं इतना मशगूल।
फूल बताकर बो गए, घर में लोग बबूल।

सूख गई भागीरथी, भागीरथ लाचार।
व्यथित, व्यग्र, अभिशप्त है, सकल, सगर परिवार।

दुःख का पारावार सह, मत हो अधिक अधीर।
चिंता का सिर काटती, चिंतन की शमशीर।

कटा, कटाया अन्न सब, रखा खेत में धान।
कला कौया ले गया, ताकता रहा किसान।

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प्यार के दोहे

प्यार युद्ध, हिंसा नहीं, प्यार नहीं हथियार, प्यार के आगे झुक गईं, कितनी ही सरकार। प्यार कृष्ण का रूप है, जिसे भजें रसखान, प्यार जिसे मिल जाये वो, बन जाये इंसान। प्यार हृदय की पीर है, प्यार नयन का नीर, ढाई आखर प्यार है, कह गए संत कबीर। प्यार न समझे छल-कपट, चोरी, झूठ या लूट, प्यार पवित्र रिश्ता अमर, जिसकी डोर अटूट। प्यार में ओझल चेतना, प्यार में गायब चैन, प्यार अश्रु अविरल-विकल, जिसमें भीगें नैन।

दो मुक्तक

चलते रहना बहुत ज़रूरी है, दिल की कहना बहुत ज़रूरी है, देखो, सागर बनेंगे ये आंसू, इनका बहना बहुत ज़रूरी है। शहर आँखों में समेटे जा रहे हैं, स्वार्थ की परतें लपेटे जा रहे हैं, छोड़कर माँ-बाप बूढ़े, कोठरी में, बीवियों के संग बेटे जा रहे हैं.

मुक्तक

यूँ भी हुए तमाशे सौ। पाया एक, तलाशे सौ। जब भी उसका नाम लिया, मुंह में घुले बताशे सौ। यूँ समझो था ख्वाब सुनहरा याद रहा। मुझे सफ़र में तेरा चेहरा याद रहा। कैसे कह दूँ तेरी याद नहीं आई, रस्ते भर खुशबु का पहरा याद रहा.